परीक्षा के पूर्व कई बार Quick revision करना चाहिए इससे परीक्षा के समय उत्तर आसानी से याद आ जाते हैं , Chapter
की विस्तृत रूप से स्टडी पहले से ही कर के रखना चाहिए तथा मुख्य मुख्य सिद्धांतों को परीक्षा के ठीक पहले पढ़ने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए । यहाँ पर हम फ़ास्ट रिवीजन के लिए सभी पाठों के main points दे रहे हैं , हम उम्मीद करते हैं की ये आपके लिए काफी उपयोगी होंगे । आपकी आने वाली परीक्षा में आपके अच्छे अंक आएं इसके लिए हमारी शुभकामनाएं ।
इकाई-1 : विलयन
विलयन: विलयन दो या दो से अधिक पदार्थों के समांगी मिश्रण को विलयन
कहते हैं।
विलायक : यह विलयन का वह अवयव (component) या अंश है जो अधिक मात्रा में उपस्थित
होता है तथा जिसकी भौतिक अवस्था विलयन की भौतिक अवस्था के
समान होती है।
विलेय : यह बिलयन का वह अवयव है जो अपेक्षाकृत कम मात्रा में
उपस्थित रहता है।
प्रतिशत सान्द्रता : यह विलयन के 100 भाग में घुलित विलेय के भागों
की संख्या को दर्शाती है। इसे तीन प्रकार से दर्शाया जा सकता है-
(i) द्रव्यमान प्रतिशत (Mass percentage): 100 ग्राम विलयन में घुले विलेय प्रदार्थ
की ग्राम मात्रा को उस विलयन का द्रव्यमान प्रतिशत कहते है |
इसे % w/w से व्यक्त करते है |
द्रव्यमान प्रतिशत =(विलेय की ग्राम मात्रा x 100) / विलयन की ग्राम मात्रा
(ii) आयतन प्रतिशत (Volume percentage) :
इसे % v/v से व्यक्त करते है |
आयतन प्रतिशत = (विलेय का आयतन (मिली में) x 100 )/ विलयन का आयतन (मिली में)
(iii) द्रव्यमान आयतन प्रतिशत
[ %w/v ] :
द्रव्यमान आयतन प्रतिशत = (विलेय का द्रव्यमान gram में x 100) / विलयन का आयतन मिली में
मोलरता :1 लीटर विलयन में उपस्थित विलेय पदार्थ के मोलों की संख्या को विलयन की मोलरता कहते हैं |
मोलरता =विलेय के मोलों की संख्या /विलयन का आयतन (लीटर में)
नॉर्मलता 1 लीटर विलयन में उपस्थित विलेय पदार्थ के ग्राम तुल्यांको की संख्या को विलयन की नॉर्मलता कहते हैं |
नॉर्मलता =विलेय के ग्राम तुल्यांको की संख्या /विलयन का आयतन (लीटर में)
मोललता (molality) यह विलायक के 1 किग्रा में उपस्थित विलेय पदार्थ के मोलों
की संख्या को दर्शाती है। इसका मात्रक मोल/किग्रा है। मोललता =विलेय के मोलों की संख्या (n) /विलायक का द्रव्यमान W (किलोग्राम में)
विलेय के मोलों की संख्या (n)
विलायक का भार (W) (किग्रा में)
• मोलरता तथा नॉर्मलता में सम्बन्ध-किसी विलयन की मोलरता तथा नॉर्मलता निम्नवत् सम्बन्धित होती है-
मोलरता x अणुभार = नॉर्मलता x तुल्यांकी भार
या मोलरता x अणुभार = नॉर्मलता x (अणुभार/n)
नॉर्मलता = मोलरता x n
जहाँ n = संयोजकता, अम्लता या क्षारकता, or n-factor है
• फॉर्मलता-किसी विलयन के एक लीटर में उपस्थित विलेय के सूत्र
भारों की संख्या (ग्राम में), उस विलयन की फॉर्मलता को दर्शाती है। इसेF से दशति हैं।
अतः विलयन की फॉर्मलता (F) = विलेय के प्राम-सूत्र भारों की संख्या/विलयन का आयतन (लीटर में)
या फॉर्मलता (F)=[विलेय का द्रव्यमान (ग्राम मे)/विलेय का सूत्र द्रव्यमान]/विलयन का आयतन (लीटर में)
● मोल प्रभाज (X)- यह किसी विलयन में उपस्थित किसी अवयव के मोलों
तथा विलयन में उपस्थित कुल मोलों की संख्या का अनुपात होता है। किसी
द्विअंगी विलयन के लिए, विलेय का मोल प्रभाज + विलायक का मोल प्रभाज = 1
एक अवयव का मोल प्रभाज X =अवयव के मोलों की संख्या/विलयन में उपस्थित कुल मोलों की संख्या
● विलेयता यह एक निश्चित ताप पर किसी विलायक की निश्चित मात्रा
में घुली किसी विलेय की अधिकतम मात्रा को दर्शाती है।
हेनरी का नियम
इसके अनुसार, स्थिर ताप पर किसी द्रव विलायक के
इकाई आयतन में घुलित गैस की मात्रा, उस द्रव की सतह पर साम्यावस्था
में, उस गैस द्वारा लगाए दाब के समानुपाती होती है।
वाष्प दाव– यह एक निश्चित ताप पर द्रव एवं उसकी वाष्प के
साम्यावस्था में होने पर, वाष्प के अणुओं द्वारा द्रव की सतह पर डाला गया
दाब है।
● वाष्प दाव में अवनमन– यह किसी विलायक में किसी अवाष्पशील
विद्युत अनअपघट्य को मिलाने पर उसके वाष्य दाब में होने वाली कमी को
दर्शाता है। ΔP = P0 – P
● राउल्ट का नियम – स्थिर ताप पर, वाष्पशील द्रवों के विलयन में
इसके अवयव का आंशिक दाब, विलयन में उसके मोल प्रभाज के
समानुपाती होता है।
अर्थात् PA= P0A.XA
● आदर्श विलयन
आदर्श विलयन सान्द्रता एवं ताप की विस्तृत परासों में राउल्ट के
नियम का पालन करते हैं। इनके लिए Δ Hमिश्रण = 0 तथा ΔVमिश्रण =O
• अनादर्श विलयन– ये सान्द्रता एवं ताप की विस्तृत परासों में राउल्ट के
नियम का पालन नहीं करते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-
(i) राउल्ट के नियम से धनात्मक विचलन दर्शाने वाले इनके लिए
मिश्रण Δ Hमिश्रण >0 तथा मिश्रण ΔVमिश्रण > 0
(ii) राउल्ट के नियम से ऋणात्मक विचलन दशनि वाले–इनके लिए
मिश्रण Δ Hमिश्रण >0 तथा मिश्रण ΔVमिश्रण > 0
● स्थिरक्वाथी मिश्रण ये ऐसे द्रवीय मिश्रण हैं जो एक निश्चित ताप पर
उबलते हैं एवं अवयवों के अनुपात में बिना परिवर्तन के वाष्पित हो जाते हैं।
इन मिश्रणों के अवयवों को प्रभाजी आसवन द्वारा पृथक् नहीं किया जा
सकता।
• अणुसंख्य गुणधर्म
अणुसंख्य गुणधर्म केवल विलयन में उपस्थित कणों की
संख्या पर निर्भर करते हैं न कि उनकी प्रकृति पर विलयनों के महत्त्वपूर्ण
अणुसंख्य गुणधर्म निम्न प्रकार हैं-
(i) वाष्प दाब में आपेक्षिक अवनमन: यह वाष्प दाब के अवनमन एवं
शुद्ध विलायक के वाष्प दाब का अनुपात होता है।
राउल्ट नियम के अनुसार, विलयन के वाष्प दाब का आपेक्षिक
अवनमन, विलेय के मोल प्रभाज के बराबर होता है।
अर्थात् (p° – pA)/pº=n/n+N
अति तनु विलयन के लिए, n<<<N
अतः
जहाँ n विलेय के मोलों की संख्या and, N= विलायक के मोलों की संख्या
(ii) क्वथनांक में उन्नयन यह किसी विलायक में कोई अवाष्पशील
विद्युत अनअपघट्य पदार्थ को मिलाने पर होता है।
क्वधनांक में उन्नयन व मोललता में सम्बन्ध ΔTb = Kb x molality ΔTb = 1000×Kb×w / M×W
(iii) हिमांक में अवनमन: यह किसी विलायक में कोई अवाष्पशील विद्युत
अनअपघट्य मिलाने पर उसके हिमांक में होने वाली कमी है। ΔTf = 1000×Kf×w / M×W
(iv) परासरण दो भिन्न सान्द्रता वाले विलयनों को अर्द्ध-पारगम्य झिल्ली
द्वारा पृथक् करने पर विलायक के अणुओं का कम सान्द्रता वाले
विलयन से अधिक सान्द्रता वाले विलयन की ओर स्वतः प्रवाह
परासरण कहलाता है।
परासरण दाब यह परासरण की क्रिया को रोकने के लिए विलयन पर
लगाया गया न्यूनतम बाह्य दाब है। परासरण दाब का समीकरण निम्न
प्रकार है-
PV = nRT या P = CRT
समपरासरी विलयन – वे विलयन हैं जिनके परासरण दाब समान होते
हैं। इनके मोलर सान्द्रण भी समान होते हैं। समपरासरी विलयन के लिए,
P1 = P2
• अतिपरासरी विलयन भिन्न सान्द्रताओं वाले
विलयनों में से अधिक परासरण दाब उत्पन्न करने वाला विलयन
अतिपरासरी विलयन कहलाता है | अल्पपरासरी विलयन – कम परासरण दाब उत्पन्न करने
वाला विलयन अल्पपरासरी विलयन कहलाता है।
व्युत्क्रम परासरण (Reverse Osmosis) इस प्रक्रम में विलयन पर उसके परासरण दाब से
अधिक दाब लगाने पर, विलायक के अणु अधिक सान्द्र विलयन से कम
सान्द्र विलयन की ओर जाने लगते हैं।
इकाई-2 वैद्युत रसायन
इलेक्ट्रोड : यह किसी धातु की प्लेट को उसी के लवण के विलयन में डुवाने पर बनी युक्ति है।
• इलेक्ट्रॉड विभव
यह धातु की छड़ (अर्थात् इलेक्ट्रोड) तथा वैद्युत
अपघट्य (लवण) के विलयन के विभव के अन्तर होता है। जब
इसे मानक परिस्थितियों में मापा जाता है तब यह मानक इलेक्ट्रोड
विभव कहलाता है।
● सेल विभव या विद्युत वाहक बल (E) यह किसी सेल की दोनों
अर्द्ध-सेलों के विभवों का अन्तर है।
Eसेल = Eकैथोड – E एनोड
• विद्युत रासायनिक श्रेणी विभिन्न तत्वों के मानक इलेक्ट्रोड विभवों को
उनके अपचयन विभव के बढ़ते या घटते क्रम में व्यवस्थित करने पर प्राप्त
श्रेणी विद्युत रासायनिक श्रेणी कहलाती है।
इस श्रेणी में नीचे स्थित तत्व अधिक क्रियाशील होने के कारण अपने से
ऊपर स्थित तत्वों को उनके लवणों के विलयनों से विस्थापित कर देते हैं।
• नर्न्स्ट समीकरण इलेक्ट्रोड विभव तथा विलयन के सान्द्रण के मध्य
सम्बन्ध को दर्शाने वाली समीकरण नर्न्स्ट समीकरण कहलाती है।
• गिब्स मुक्त ऊर्जा यह वह ऊर्जा है जो उपयोगी कार्य को दर्शाती है।
किसी स्वतः प्रवर्तित अभिक्रिया के लिए इसका मान ऋणात्मक होता है।
विशिष्ट चालकत्व या चालकता – विशिष्ट प्रतिरोध के व्युत्क्रम को
विशिष्ट चालकता या चालकत्व कहा जाता है। इसे (कप्पा) के द्वारा
प्रदर्शित किया जाता है। अतः
विशिष्ट चालकत्व या चालकता, κ = l/Ra, k=(1/R)(l/a)
• मोलर चालकता एक सेमी की दूरी पर स्थित एक वर्ग सेमी अनुप्रस्थ
परिच्छेद के क्षेत्रफल वाले दो समान्तर इलेक्ट्रोडों के मध्य रखे विलयन में
यदि एक ग्राम-मोल वैद्युत अपघट्य घुला हो तब उस विलयन की
चालकता, उसकी मोलर चालकता कहलाती है।
• वैद्युत अपघटनी चालकत्व-जलीय विलयन में किसी वैद्युत अपघट्य
की विद्युत धारा को प्रवाहित करने की क्षमता, उसके वैद्युत अपघटनी
चालकत्व को दर्शाती है।
• तुल्यांकी चालकता तथा विशिष्ट चालकता में सम्बन्ध
तुल्यांकी चालकता, Λeq=(κ x 1000)/N
नहीं, N= नॉर्मलता या ग्राम-तुल्यांक प्रति लीटर सान्द्रता
● मोलर चालकता तथा विशिष्ट चालकता में सम्बन्ध
मोलर चालकता, Λm = κ x 1000/M
जहाँ M= मोलरता या मोल प्रति लीटर सान्द्रता
● सान्द्रता का चालकता पर प्रभाव– विलयन को तनु करने पर विशिष्ट
चालकता घटती है जबकि मोलर एवं तुल्यांकी चालकताएँ बढ़ती हैं।
• कोलराऊश का नियम-कोलराऊश का आयनों के स्वतन्त्र अभिगमन
सिद्धान्त के अनुसार-अनन्त तनुता पर, किसी वैद्युत अपघट्य के
विलयन की मोलर चालकता, उसमें उपस्थित समस्त धनायनों एवं
ऋणायनों की मोलर आयनिक चालकताओं के कुल योग के बराबर होती
है। example
Λm (NaCl) = λm(Na+) + λm(Cl-)
वैद्युत अपघटन विद्युत धारा के द्वारा किसी वैद्युत अपघट्य के विघटन
की क्रिया वैद्युत अपघटन कहलाती है। इसे बोल्टमीटर या वैद्युत अपघटनी
सेल में किया जाता है। इसमें ऐनोड धन तथा कैथोड ऋण इलेक्ट्रोड होता
है।
इकाई- 3 रासायनिक बलगतिकी
रासायनिक अभिकिया का वेग- यह इकाई समय में किसी अभिकारक
या उत्पाद के सान्द्रण में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है।
अभिक्रिया का वेग (Rate) = अभिकारक या उत्पाद की सान्द्रता में परिवर्तन/परिवर्तन में लगा समय
यदि अभिकारक या उत्पाद की सान्द्रता को मोल/ लीटर में दिया गया हो
तथा समय को सेकण्ड या मिनट में दिया गया हो तब
अभिक्रिया के वेग के मात्रक = मोल लीटर-1 सेकण्ड-1
या मोल लीटर-1 मिनट -1
●
औसत वेग—यह किसी निश्चित समयान्तराल में अधिकारक या उत्पाद
की सान्द्रता में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है।
तात्क्षणिक वेग- यह किसी निश्चित क्षण पर अभिकारक उत्पाद की
सान्द्रता में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है।
अभिक्रिया वेग को प्रभावित करने वाले कारक– अभिक्रिया का वेग —
(i) अभिकारक/ उत्पाद की प्रकृति,
(ii) अभिकारक के पृष्ठ क्षेत्रफल,
(iii) माध्यम की प्रकृति, ताप, दाब, उत्प्रेरक आदि
के द्वारा प्रभावित होता है।
वेग नियम- यह एक व्यंजक है जिसमें किसी अभिक्रिया के वेग को
उसके अधिकारकों की मोलर सान्द्रता के पद पर कोई घातांक लगाकर
व्यक्त किया जाता है।
वेग स्थिरांक
स्थिर ताप पर, अभिकारकों का सान्द्रण इकाई होने पर
यह अभिक्रिया के वेग के बराबर होता है। यह अभिक्रिया की प्रकृति तथा
ताप पर निर्भर करता है।
अभिक्रिया की कोटि- यह किसी अभिक्रिया के प्रायोगिक रूप से
निर्धारित
वेग में उपस्थित सभी अभिकारक अणुओं की सान्द्रताओं की घातों
का योग ह होती है। इसका मान शून्य, धनात्मक, ऋणात्मक या भिन्नात्मक
हो सकता है।
आभक्रिया की आण्विकता– यह किसी सन्तुलित प्राथमिक रासायनिक
: अभिक्रिया में उपस्थित अभिकारकों की कुल संख्या को दर्शाती है।
इसका मान सदैव पूर्णांक होता है। प्राथमिक अभिक्रिया के लिए आण्विकता
तथा कोटि का मान समान होता है।
छद्म एकाण्विक अभिक्रियाएँ—ये ऐसी रासायनिक अभिक्रियाएँ हैं।
जिनकी आण्विकता दो या अधिक होती है, परन्तु कोटि एक होती है।
उदाहरण- एथिल ऐसीटेट का जल अपघटन, शर्करा का प्रतिलोमन
आदि।
● शून्य कोटि की अभिक्रियाएं-ये वे अभिक्रियाएँ हैं जिनमें अभिक्रिया
का वेग अभिकारक की सान्द्रता की शून्य घात के समानुपाती होता है अर्थात्
दर Rate = k[A]0
तथा समाकलित वेग समीकरण k= [R]0– [R] / t
● प्रथम कोटि की अभिक्रियाएँ- वे अभिक्रियाएं जिसमें अभिक्रिया का वेग अभिकारक के
प्रथम घात के समानुपाती होता है अर्थात अभिक्रिया के वेग समीकरण
में सांद्रताओं की घातों का योग एक होता है प्रथम कोटि की अभिक्रिया कहलाती है
• अभिक्रिया की कोटि को निर्धारित करने की विधियाँ
(1)समाकलन विधि (ii) ग्राफीय विधि (iii) अर्द्ध-आयुकाल विधि (iv)
ऑस्टवाल्ड पृथक्करण विधि।
• अर्द्धआयु-वह समय जिसमें कोई पदार्थ अपनी प्रारम्भिक मात्रा का आधा
रह जाता है, उस पदार्थ का अर्द्ध-आयुकाल, (ty या isons) कहलाता है।
शून्य कोटि की अभिक्रिया के लिए अर्द्धआयु
शून्य कोटि की अभिक्रिया का अर्द्ध-आयुकाल, उसके अभिकारक की
प्रारम्भिक सान्द्रता (a) के समानुपाती होता है।
प्रथम कोटि की अभिक्रिया के लिए अर्द्धआयु
प्रथम कोटि की अभिक्रिया की अर्द्ध-आयु, अभिकारकों की प्रारम्भिक
सान्द्रता पर निर्भर नहीं करती है।
●आर्हेनियस समीकरण अभिक्रिया के वेग की ताप पर निर्भरता को दर्शानि
के लिए रसायनज्ञ जे.एच. वाण्ट हॉफ ने एक समीकरण प्रस्तावित की,
जिसका भौतिक सत्यापन तथा प्रतिपादन स्वीडन के रसायनज्ञ आर्हेनियस
ने किया। इस समीकरण को आर्हनियस समीकरण कहते हैं। यह समीकरण
निम्नलिखित है-
k= A.e -Ea/RT
जहाँ = अभिक्रिया का वेग स्थिरांक
A = पूर्व चरघातांकी गुणांक अथवा आवृत्ति गुणांक
E सक्रियण ऊर्जा (जूल मोल 1)
R= गैस स्थिरांक (8.314 जूल केल्विन
मोल )
T परमताप (केल्विन में)
इकाई-4 : d एवं f-ब्लॉक के तत्व
d ब्लॉक के तत्व– ये वे तत्व हैं जिनमें बिभेदी इलेक्ट्रॉन (n-1) d
उपकोश में भरा जाता है। इसके अन्तर्गत 10 वर्ग अर्थात् वर्ग 3, 4, 5, 6,
7, 8, 9, 10, 11, 12 आते हैं।
संक्रमण तत्व– ये s तथा p ब्लॉक के तत्वों के मध्यवर्ती गुण दर्शाने
वाले तत्व हैं। सामान्यतया वर्ग 12 के तत्वों को छोड़कर सभी d ब्लॉक
के तत्व संक्रमण तत्व कहलाते हैं। इनका इलेक्ट्रॉनिक विन्यास
(n-1)d1-10 ns1-2 होता है। d ब्लॉक के तत्वों को निम्नलिखित चार
श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-
1. प्रथम या 3d संक्रमण श्रेणी (First or 3d transition
series)- इस श्रेणी में विभेदी (अन्तिम) इलेक्ट्रॉन 3d उपकोश मे
भरे जाते हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत Sc(21) से Zn(30) तक दस तत्वों को
रखा गया है।
2. द्वितीय या 4d संक्रमण श्रेणी (Second or 4d transition
series)- इस श्रेणी में विभेदी (अन्तिम इलेक्ट्रॉन 4d उपकोश में
भरे जाते हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत Y39 से Cd 48 तक 10 तत्वों को
रखा गया है।
3. तृतीय या 5d संक्रमण श्रेणी (Third or 5d transition
series)– इस श्रेणी में विभेदी (अन्तिम) इलेक्ट्रॉन 6d उपकोश में
भरा जाता है। इस श्रेणी में La तथा Hf से Hg 80 तक दस तत्वों
को रखा गया है।
4. चतुर्थ या 6d-संक्रमण श्रेणी (Fourth or 6d-transition
series) – इस श्रेणी में विभेदी (या अन्तिम) इलेक्ट्रॉन 6d-उपकोश
में भरा जाता है। इस श्रेणी में Ac तथा Rf 104 से Cn 112 तक दस
तत्वों को रखा गया है।
f ब्लॉक के तत्व– ये वे तत्व हैं जिनमें बिभेदी इलेट्रॉन (n-2) f
उपकोशों में भरा जाता है। इन्हें आन्तरिक संक्रमण तत्व भी कहते हैं। इसके
अन्तर्गत तत्वों की दो श्रेणियाँ आती हैं। ये श्रेणियाँ लैन्थेनाइड तथा
ऐक्टिनाइड श्रेणी कहलाती हैं। ब्लॉक के तत्वों का सामान्य इलेक्ट्रॉनिक
विन्यास (n-2) f1- 14 (n-1)d0-1ns 2 होता है।
संक्रमण तत्वों का रंग-अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति वाले संक्रमण
तत्वों के यौगिक रंगीन होते हैं।
संक्रमण तत्वों का चुम्बकीय गुण-अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति
के कारण अधिकांश संक्रमण तत्व अनुचुम्बकीय (paramagnetic)
होते हैं।
• ऑक्सीकरण अवस्थाएं – (n-1)d तथा ns उपकोशों के ऊर्जाओं के
मध्य कम अन्तर होने के कारण वे तत्व परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्थाएँ दशति हैं।
इनमें से Mn सर्वाधिक ऑक्सीकरण संख्याएँ दर्शन वाला तत्व है।
● भौतिक गुण- प्रबल धात्विक एवं सहसहसंयोजक बन्धों की उपस्थिति के
कारण संक्रमण तत्व कठोर होते हैं एवं इनके गलनांक, क्वथनांक एवं
घनत्व उच्च होते हैं।
● अन्तराकाशी यौगिकों का निर्माण -संक्रमण धातुओं के अवयवी
परमाणुओं के निविड संकुलित होने पर भी इनके मध्य कुछ रिक्त स्थान
शेष रह जाते हैं जिन्हें अन्तराकाश कहा जाता है। संक्रमण तत्वों में छोटे
परमाणुओं जैसे H, N, C आदि को अपने अन्तरकाशी स्थान में ग्रहण
करने की क्षमता होती है। संक्रमण धातु के इन छोटे परमाणुओं के साथ
निर्मित यौगिक अन्तराकाशी यौगिक कहलाते हैं। इन यौगिकों में न तो
आयनिक बन्ध बनता है और न ही सहसंयोजक।
● मिश्रधातु का निर्माण – दो या दो से अधिक धातुओं या धातु एवअधातु का समांगी मिश्रण मिश्र धातु कहलाता है। यद्यपि ठोस अवस्था में
कुछ मिश्रधातुएँ विषमांगी भी हो सकती हैं। संक्रमण धातुएँ अपने
अभिलक्षणिक गुणों तथा त्रिज्याओं में समानता के कारण सरलता से मिश्र
धातुएँ बनाती हैं। ये मिश्र धातुएँ सामान्यतया कठोर होती हैं तथा इनके
गलनांक भी सामान्यतया उच्च होते हैं। फेरस (लोहा) की मिश्रधातुएँ सबसे
सुपरिचित मिश्रधातुएँ हैं। जिन मिश्र धातुओं में पारा भी एक अवयव होता है।
उन्हें अपलगम (amalgam) कहते
कहते हैं।
● लैन्थेनॉइड -इन तत्वों में अन्तिम या विभेदी इलेक्ट्रॉन के 4f कक्षक में
प्रवेश करने के कारण इन्हें 4f श्रेणी के तत्व या प्रथम आन्तरिक संक्रमण
श्रेणी के तत्व भी कहा जाता है। इस श्रेणी में लैन्थेनम् के बाद के चौदह तत्व
सीरियम (Z = 58) से ल्युटीशियम (Z = 71) तक रखे गए हैं।
• इलेक्ट्रॉनिक विन्यास– इन तत्वों के बाह्यतम् कोश का सामान्य
इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 4f1-14, 5d0-1,6s2 होता है तथा इनमें अन्तिम
(या विभेदी) इलेक्ट्रॉन 4f उपकोश में प्रवेश करता है।
La के संयोजी कोश का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 4f0 5d1 6s2 होता है।
जिससे यह प्रतीत होता है कि La के आगे वाले
वाले तत्वों में इलेक्ट्रॉन 5d -कक्षक में प्रवेश करने चाहिए, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है।
इसका कारण यह है कि इलेक्ट्रॉनों के जुड़ने के साथ 4fउपकोश की
ऊर्जा, 5d उपकोश की अपेक्षा कम हो जाती है जिस कारण आगे के तत्वों
में इलेक्ट्रॉन क्रमशः 4f -उपकोश में ही भरे जाते हैं। गैडोलिनियम,
Gd (64) तथा ल्युटीशियम, Lu (71) में क्रमशः अर्द्ध-पूर्ण (4f7 ) तथा
पूर्ण (4f14) कक्षकों की उपस्थिति इन्हें अधिक स्थायी बनाती है जिस कारण
इनमें एक इलेक्ट्रॉन 4f कक्षक में न जुड़कर, 5d कक्षक में जुड़ता है।
लेन्थेनाइड संकुचन – La से Lu तक आयनिक त्रिज्याओं में
निरन्तर कमी होने को लैन्थेनाइड संकुचन कहते हैं। इस संकुचन के
कारण 4d व 5d के संक्रमण तत्वों के आकार में समानता आ जाती है।
लैन्थेनॉइड संकुचन के परिणाम-लैन्थेनॉइड संकुचन के फलस्वरूप
निम्नलिखित परिणाम उत्पन्न होते हैं-
(i) लैन्थेनॉइड का पृथक्करण(Separation of lanthanoids) – रासायनिक गुणों में समानता होने के कारण
लैन्थेनॉइडो का पृथक्करण कठिन होता है परन्तु लैन्थैनाइड संकुचन के
कारण उनके गुणों में मामूली सा अन्तर आ जाता है जिसके कारण
इन्हें आयन विनिमिय रेजिन विधि द्वारा पृथक् किया जा सकता है।
(Ii) समान परमाणु आयनिक-लैन्थेनॉइड के पश्चात् आने
वाले तत्वों को देखने पर स्पष्ट है कि समूह 4 Zr (160pm) Hf (159pm), समूह 5 Nb (146pm) Ta (146pm)
लैन्थेनाइड संकुचन के कारण द्वितीय एवं तृतीय संक्रमण श्रेणियों के
कुछ तत्वों जैसे-Zr तथा Hf, Nb तथा Ta की त्रिज्याएँ समान होती हैं , इस कारण
इनके गुणधर्म लगभग समान होते हैं। अतः इन्हें रासायनिक रूप से जुड़वाँ
तत्व (Chemical twins elements) भी कहा जाता है।
(iii) सहसंयोजक गुण में वृद्धि -La3+ से Lu3+ तक आकार कम होने
के कारण La– O बन्ध में संयोजक लक्षण बढ़ता है। अत: La(OH)3
अधिकतम क्षारीय तथा Lu(OH)3 न्यूनतम क्षारीय होता है।
● ऑक्सीकरण अवस्थाएं-लैन्थेनॉइड मुख्यतया +2 एवं +3
ऑक्सीकरण अवस्थाएँ दशति हैं यद्यपि विलयन या ठोस यौगिकों में +4
अवस्था भी देखने को मिलती है। इनकी सामान्य ऑक्सीकरण अवस्था +9
है, जो 6s के दो तथा 4f या 5d के एक इलेक्ट्रॉन के त्यागने से प्राप्त
होती है।
इकाई-5 : उपसहसंयोजन यौगिक
द्विक लवण-वे योगात्मक यौगिक जो जलीय विलयन में अपने आयनों
के रूप में विभक्त हो जाते हैं अर्थात् जिनका जलीय विलयन में कोई
अस्तित्व नहीं होता है, द्विक लवण कहलाते हैं। ये केवल ठोस अवस्था में
ही स्थायी होते हैं । उदाहरण-पोटाश ऐलम या फिटकरी
[K2SO4 AI2(SO4)3.24H2O
फिटकरी के अतिरिक्त कार्नेलाइट KCI MgCl2 6H2O तथा मोर लवण
FeSO4 (NH4)2SO4.6H20 भी दिक् लवणों के उदाहरण हैं।
● संकुल या उपसहसंयोजन यौगिक :- योगात्मक या आण्विक यौगिक
जो जलीय विलयन में अपने आयनों में वियोजित नहीं होते हैं अर्थात्
जलीय विलयन में भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं, संकुल या
उपसहसंयोजन यौगिक कहलाते हैं।
उदाहरण- कॉपर ऐमीनो सल्फेट, [Cu (NH3)4] SO4
वर्नर सिद्धान्त-इसके अनुसार धातु दो प्रकार की संयोजकता दर्शाती
हैं- प्राथमिक तथा द्वितीयक
● केन्द्रीय परमाणु/आयन- ये वे धातु परमाणु/आयन हैं जो निश्चित
संख्या में उपस्थित अन्य अणुओं/आयनों द्वारा एक निश्चित ज्यामितीय
व्यवस्था में परिबद्ध रहते हैं।
लिगेण्ड ये उपसहसंयोजन सत्ता में केन्द्रीय धातु को परिवद्ध करने वाले
अणु/ आयन हैं। ये धातु के साथ उपसहसंयोजक बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं।
उभयदन्तुक लिगेण्ड-ये वे लिगेण्ड हैं जिनमें दो दाता परमाणु उपस्थित
होते हैं परन्तु जो बन्ध बनाने के लिए इनमें से केवल एक का ही प्रयोग कर
सकते हैं। उदाहरण NO2– या ONO– , CN– या NC–
कीलेट-ये धातु तथा लिगेण्ड (द्वि या बहु-दन्तुक) के द्वारा निर्मित वलय
युक्त संरचना है।
● उपसहसंयोजन या समन्वय संख्या-यह धातु से जुड़े लिगेण्डों के दाता
परमाणुओं की कुल संख्या के बराबर होती है।
● समरूप या होमोलेप्टिक संकुल-इन संकुलों में केवल एक ही प्रकार
के लिगेण्ड उपस्थित होते हैं।
● अमरूप या हटेरोलेस्टिक संकुल–
इनमें दो या अधिक प्रकार के
लिगेण्ड उपस्थित होते हैं।
उपसहसंयोजन योगको का IUPAC नामकरण-इनके नाम में पहले धनायन
का नाम लिखकर फिर ऋणायन का नाम लिखा जाता है।
यदि उपसहसंयोजन यौगिक में उपस्थित संकुल इसका धनानिक भाग बनाता
है , इसके नाम का प्रारूप निम्नवत् होता है-
●लिगेण्डों की संख्या (prefix)+ लिगेण्डों का नाम (वर्णमाला क्रम में) + धातु का नाम
+ (धातु की ऑ० सं० Roman no. में )
यदि उपसहसंयोजन यौगिक में उपस्थित संकुल इसका ऋणायनिक भाग
बनाता है तब इसके नाम का प्रारूप निम्नवत् होता है-
●लिगेण्डों की संख्या + लिगेण्डों का नाम (वर्णमाला क्रम में) + धातु का नाम
+ऐट + (धातु की ऑ० सं० Roman no. में )
समावयवता – समान अणुसूत्र वाले यौगिकों का संरचना या
अभिविन्यास में भिन्नता होने के कारण गुणों में भिन्नता दर्शाने का गुण
समावयवता कहलाता है।
ज्यामितीय समावयवता– वे यौगिक जिनके अणुसूत्र एवं संरचना सूत्र
समान होते हैं, परन्तु केन्द्रीय परमाणु के परितः स्थित लिगेण्डों के विन्यासों
में भिन्नता होती है ज्यामितीय समावयवी कहलाते है तथा यह घटना
ज्यामितीय समावयवता कहलाती है।
संरचनात्मक समावयवता-वे योगिक जिनके अणुसूत्र समान तथा
संरचना सूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं, संरचनात्मक समावयवी कहलाते हैं।
तथा यह घटना संरचनात्मक समावयवता कहलाती है।
संयोजकता बन्ध सिद्धान्त (VBT) – यह केन्द्रीय धातु परमाणु के
कक्षकों के अतिव्यापन एवं संकरण पर आधारित है। इसके अनुसार
(i) यौगिक में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित होने पर यह रंगीन तथा
अनुचुम्बकीय होगा, जबकि सभी इलेक्ट्रॉनों के युग्मित होने पर यह
रंगहीन तथा प्रतिचुम्बकीय होता है।
(ii) (n-1) d कक्षकों का प्रयोग करने पर संकुल आन्तरिक कक्षक
संकुल या निम्न चक्रण संकुल कहलाता है जबकि nd कक्षकों का
प्रयोग करने पर यह वाम कक्षक संकुल या उच्च चक्रण संकुल
कहलाता है।
(iii) संकरण sp3d2 या d2sp3 होने पर संकुल की ज्यामिति
अष्टफलकीय, sp3 होने पर संकुल की ज्यामिति चतुष्फतकीय तथा
dsp2 होने पर संकुल की ज्यामिति वर्ग समतलीय होती है।
● क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त (CFT)- इसमें धातु-लिगेण्ड बन्ध को पूर्णतया
आयनिक माना गया है। इसके अनुसार लिगेण्ड की उपस्थिति में धातु के
अपभ्रंश कक्षक दो ऊर्जा स्तरों eg तथा t2g
में विभक्त हो जाते हैं। इन दो ऊर्जा स्तरों की ऊर्जाओं
का अन्तर क्रिस्टल क्षेत्र विभाजन ऊर्जा (CFSE) कहलाता है।
उपसहसंयोजन यौगिकों का स्थापित्य-इनका स्थायित्व बढ़ता है जब-
(i) केंन्द्रीय धातु पर आवेश घनत्व उच्च होता है।
(ii) केन्द्रीय धातु का आकार छोटा होता है।
(iii) कीलेट बनता है।
(iv) लिगण्ड का आवेश उच्च तथा आकार छोटा होता है।
(v) लिगेण्ड अधिक क्षारीय होता है।
इकाई- 6 : हैलोऐल्केन तथा हैलोऐरीन
हैलोऐल्केन तथा हैलोऐरीन –ऐलिफैटिक हाइड्रोकार्बन के हैलोजन
व्युत्पन्न हलोऐल्केन कहलाते हैं जबकि ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बन के
हैलोजन व्युत्पन्न हैलोऐरीन कहलाते हैं। हैलोऐल्केन या हैलोऐरीन
को उनकी संरचना में उपस्थित एक, दो अथवा अधिक हैलोजन
परमाणुओं के आधार पर क्रमश: मोनो डाइ अथवा पॉलिहैलोजन
(ट्राइ, टेट्रा आदि) यौगिकों में वर्गीकृत किया जा सकता है। हैलोजन
परमाणु कार्बन से अधिक विद्युत् ऋणात्मक होता है, इसलिए C-X
आबन्ध ध्रुवित हो जाता है। कार्बन पर आंशिक धनावेश तथा हैलोजन
परमाणु (X) पर आंशिक ऋणावेश आ जाता है।
हैलोऐल्केन बनाने की विधियां : ऐल्किल हैलाइडों को —
(i) ऐल्केन के मुक्त मूलक हैलोजनीकरण द्वारा,
(ii) एल्कीनों पर हैलोजन अम्लों के योग द्वारा,
(iii) ऐल्कोहॉल के –OH समूह को
(a) फॉस्फोरस हैलाइड या
(b) थायोनिल क्लोराइड अथवा
(c) हैलोजन अम्लों के उपयोग से हैलोजन द्वारा प्रतिस्थापन कर बनाया जाता है।
क्वथनांक : प्रबल द्विध्रुव-द्विध्रुव तथा वाण्डर वाल्स आकर्षण बलों के कारण कार्बन
हैलोजन यौगिकों के क्वथनांक संगत हाइड्रोकार्बन की तुलना अधिक
होते हैं। ये जल में अल्प विलेय लेकिन कार्बनिक विलायकों में पूर्णतया
विलेय होते हैं।
कार्यधात्विक यौगिकों के निर्माण के लिए उत्तरदायी : ऐल्किल हैलाइडों के कार्बन हैलोजन आबन्ध की ध्रुवता इनके नाभिकरागी
प्रतिस्थापन, विलोपन तथा धातुओं से अभिक्रिया द्वारा कार्यधात्विक
यौगिकों के निर्माण के लिए उत्तरदायी है।
रासायनिक बलगतिकी गुणों के आधार पर नाभिकरागी प्रतिस्थापन
अभिक्रियाओं को SN1 और SN2 में बाँटा गया है।
SN2 अभिक्रिया के लिए ऐल्किल हैलाइडों की अभिक्रियाशीलता का
बढ़ता क्रम इस प्रकार है-
तृतीयक हैलाइड < द्वितीयक हैलाइड < प्राथमिक हैलाइड < मैथिल हैलाइड
SN1 अभिक्रिया के लिए ऐल्किल हैलाइडों की अभिक्रियाशीलता का
बढ़ता क्रम SN2 का ठीक विपरीत हैं।
मेथिल हैलाइड < प्राथमिक हैलाइड < द्वितीयक हैलाइड < तृतीयक
हैलाइड
•ऐलिलिक और बेन्जिलिक हैलाइड SN1 अभिक्रिया के प्रति अधिक
क्रियाशीलता प्रदर्शित करते हैं क्योंकि इनसे निर्मित कार्योंकटायन अनुनाद
के द्वारा स्थायित्व ग्रहण कर लेते हैं।
SN1 और SN2 दोनों क्रियाविधि के लिए दिये गये ऐल्किल समूह के
लिए हैलाइड R-X की क्रियाशीलता का क्रम इस प्रकार होता है-
R- I > R – Br > R-CI > R-F
विहाइड्रोहैलोजनीकरण :- में, α हाइड्रोजन परमाणु युक्त हैलोऐल्केन
को पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड के ऐल्कोहॉली विलयन के साथ गर्म
किये जाने पर कार्बन से H-परमाणु तथा α कार्बन से हैलोजन
परमाणु का विलोपन होता है जिसके फलस्वरूप ऐल्कीन उत्पाद के रूप
में प्राप्त होती है।
सेटजेफ नियम के अनुसार, विहाइड्रोहैलोजनीकरण के फलस्वरूप
वह ऐल्कीन मुख्य रूप से निर्मित होती है जिसमें द्विआबन्धी कार्बन
परमाणुओं पर ऐल्किल समूहों की संख्या अधिक होती है।
अधिकांश कार्बनिक क्लोराइड, ब्रोमाइड तथा आयोडाइड कुछ धातुओं
के साथ अभिक्रिया करके कार्बन धातु आवन्ध युक्त यौगिक देते हैं।
जिन्हें कार्बधात्विक यौगिक कहते हैं। ग्रिगनाई अभिकर्मक ( R-Mg-X )एक प्रमुख
कार्बधात्विक यौगिक हैं ये हैलोऐल्केनों की शुष्क ईथर की उपस्थिति में
मैग्नेशियम धातु से अभिक्रिया द्वारा प्राप्त किये जाते हैं।
ऐरिल हैलाइडों को ऐरीनों की इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन अभिक्रिया द्वारा बनाया जाता है। फ्लुओराइडों और आयोडाइडों को बनाने की श्रेष्ठ
विधि हैलोजन विनिमय विधि है।
ऐरिल हैलाइड नाभिकरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं के प्रति कम
क्रियाशील होते हैं। अतः क्लोरोबेन्जीन का फीनॉल में परिवर्तन
उच्च दाब 300 atm 523 K
पर सोडियम हाइड्रॉक्साइड के साथ गरम करके किया जाता है।
ऑर्थो तथा पैरा-स्थिति पर इलेक्ट्रॉन-अपचायक समूह जैसे -NO2
उपस्थित होने से हैलोऐरीन की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इलेक्ट्रॉन
अपचायक समूह के मेटा- स्थिति पर जुड़े होने की स्थिति में हैलोऐरीनों
की अभिक्रियाशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन :-हैलोऐरीन बेन्जीन के समान सामान्य इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन
अभिक्रियाएँ जैसे हैलोजन, नाइट्रीकरण, सल्फोनेशन तथा फ्रीडेल-क्राफ्ट
अभिक्रियाएँ देती है।
o- तथा p-निर्देशकारी प्रभाव हैलोऐरीन में हैलोजन परमाणु के आंशिक निष्क्रियक होते हुए भी इसका
o- तथा p-निर्देशकारी प्रभाव होता है। अतः अगला प्रतिस्थापन हैलोजन
के स्थान से ऑथों और पैरा- स्थितियों पर होता है।
पॉलिहैलोजन यौगिक जैसे डाइक्लोरोमेथेन, क्लोरोफॉर्म,
आयोडोफॉर्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड, फ्रीऑन तथा DDT के अनेक
औद्योगिक अनुप्रयोग हैं। तथापि इनमें से कई यौगिक शीघ्रता से
अपघटित नहीं किए जा सकते हैं। ये ओजोन परत का विरलीकरण
करते हैं जिस कारण वायुमण्डलीय संकट उत्पन्न हो रहा है ।
असममित कार्बन प्रकाशिक सक्रिय यौगिकों में ध्रुवण घूर्णकता का गुण पाये जाने के कारण
इनमें असममित कार्बन परमाणु का पाया जाना है। असममित कार्बन
परमाणु को काइरल परमाणु या काइरल केन्द्र भी कहते हैं।
SN1 व SN2 अभिक्रिया की क्रियाविधि को समझने के लिए काइरलता की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। काइरल ऐल्किल हैलाइड की SN2 अभिक्रिया
को विन्यास में प्रतीपन द्वारा तथा SN1 अभिक्रिया को रैसिमीकरण के द्वारा अभिलाक्षणिक किया सकता हैं
प्रतिबिम्ब रूप : जिन त्रिविम समावयवियों का सम्बन्ध परस्पर अध्यारोपित न हो सकने
वाले दर्पण प्रतिबिम्बों की तरह होता है, उन्हें प्रतिबिम्ब रूप कहते हैं।
दो प्रतिबिम्ब रूपों के समान अनुपात मिश्रण का ध्रुवण घूर्णन शून्य
होता है। इस मिश्रण को रैसिमिक मिश्रण कहते हैं तथा प्रतिबिम्ब रूप के
रेसिमिक मिश्रण में परिवर्तित होने के प्रक्रम को रैसिमीकरण कहते हैं।
विन्यास का धारण : रूपान्तरण के समय एक असममित केन्द्र
के आबन्धों के त्रिविम विन्यास की अखण्डता बने रहने को विन्यास का
धारण कहते हैं।
● सैण्डमायर अभिक्रिया (Sandmeyer Reaction)- बेंजीन ring में CI, Br, CN नाभिकरागियों
को CuCN की उपस्थिति में प्रवेश कराने की अभिक्रिया सैण्डमायर अभिक्रिया कहलाती है। जब ठंडे जलीय
खनिज अम्ल में घुली अथवा निलम्बित किसी प्राथमिक ऐमीन को
सोडियम नाइट्राइट के साथ अभिकृत किया जाता है तो डाइऐजोनियम
लवण बनते हैं। डाइऐजोनियम
लवण की CuCl के साथ अभिक्रिया से क्लोरोबेंजीन बनता है ।
● गाटरमान अभिक्रिया (Gattermann reaction)-बलोरो और ब्रोमो
ऐरीनों का निर्माण गाटरमान अभिक्रिया द्वारा भी किया जा सकता है।
यह सैण्डमायर अभिक्रिया का संशोधित रूप है। इस अभिक्रिया में
क्यूप्रस हैलाइड के स्थान पर कॉपर चूर्ण का प्रयोग करते हैं। अर्थात्
डाइऐजोनियम लवण को Cu चूर्ण/HCI अथवा Cu चूर्ण / HBr के
विलयन के साथ गर्म करने पर क्रमशः क्लोरोबेन्जीन अथव ब्रोमोबेन्जीन
प्राप्त होते हैं।
● फिटिंग अभिक्रिया (Fittig reaction)-
शुष्क ईथर की उपस्थिति में
क्लोरोबेन्जीन, सोडियम के साथ गर्म किये जाने पर डाइफेनिल बनाती है।
इकाई-7 ऐल्कोहॉल, फीनॉल एवं ईथर
ऐल्कोहॉल–ऐल्कोहॉल, जल के मोनोएल्किल व्युत्पन्न अथवा
हाइड्रोकार्बनों के हाइड्रॉक्सी व्युत्पन्न होते हैं जिन्हें R- OH, RCH2OH आदि से दर्शाया जाता है।
• ऐल्कोहॉलों का वर्गीकरण निम्न आधार पर किया जाता है (i) हाइड्रॉक्सिल समूहों की संख्या के
आधार पर (ii) कार्बन परमाणु के sp3 या sp2 संकरण जिससे कि OH
जुड़ा होता है ।
ऐल्कोहॉलों को निम्नलिखित विधियों से बनाया जा सकता है-
(1) ऐल्कीनों के जलयोजन से (i) अम्ल की उपस्थिति में,
(ii) हाइड्रोनन-ऑक्सीकरण अभिक्रिया द्वारा (2) कार्बोनिल
यौगिकों से-(i) उत्प्रेरकी अपचयन (ii) ग्रिगनार्ड अभिकर्मक की क्रिया
द्वारा।
हैलोफॉर्म अभिक्रिया (Haloform reaction)- एथिल ऐल्कोहॉल
सोडियम हाइड्रॉक्साइड अथवा सोडियम कार्बोनेट के जलीय विलयन
और I2 के साथ गर्म करने पर पीले रंग का क्रिस्टलीय ठोस आयोडोफॉर्म
बनाता है,इसे हैलोफोर्म अभिक्रिया कहते हैं ।
CH3CH2OH + 4I2 + 6NaOH ⟶ CHI3 + 3Nal + HCOONa+ + 5H2O
एल्कोहॉलों के भौतिक गुण : ऐल्कोहॉल अणुओं के मध्य प्रबल हाइड्रोजन आबंध उपस्थित होने से
ऐल्कोहॉल का क्वथनांक समान अणुभार वाले ऐल्केनों तथा ईथर से
अधिक होता है।
अणुभार में वृद्धि के साथ पृष्ठ क्षेत्रफल में वृद्धि होने के कारण वाण्डर
वाल्स बल में भी वृद्धि हो जाती है जिस कारण क्वथनांक बढ़ जाते हैं।
ऐल्कोहॉलों की जल के साथ अन्तराण्विक हाइड्रोजन आबंध बनाने की
क्षमता के कारण यह जल में घुलनशील होते हैं। हालाकि अणुभार में
वृद्धि के साथ हाइड्रोकार्बन अंश के बढ़ने से जल में विलेयता घटती
जाती है (हाइड्रोजन आबंध न बनने से)।
एल्कोहॉलों के रासायनिक गुण : ऐल्कोहॉलों की प्रवृत्ति अम्लीय होती है। ये हाइड्रोजन हैलाइडों (H-X )के साथ
नाभिकरागी प्रतिस्थापन द्वारा ऐल्किल हैलाइड ( R-X )प्रदान करते हैं।
ऐल्कोहॉलों का निर्जलन एल्कीन देता है। ऐल्कोहॉलों के आधिक्य में
निर्जलीकरण पर ईथर भी प्राप्त होते हैं।
दुर्बल ऑक्सीकारकों द्वारा प्राथमिक ऐल्कोहॉल ऑक्सीकृत होकर
ऐल्डिहाइड प्रदान करते हैं तथा प्रबल ऑक्सीकारकों द्वारा कार्बोक्सिलिक
अम्ल प्राप्त होते हैं। द्वितीयक ऐल्कोहॉल कोटोन तथा तृतीयक ऐल्कोहॉल
प्रबल ऑक्सीकारकों द्वारा ही ऑक्सीकृत होकर कम कार्बन के कीटोन
और कार्बोक्सिलिक अम्ल देते हैं।
विक्टर मेयर परीक्षण में लाल, नीला तथा रंगहीन ( Red, Blue ,Colourless ) विलयन क्रमश:
प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक ऐल्कोहॉल से प्राप्त होते हैं जिनसे
उनकी पहचान की जाती है।
ल्यूकास अभिकर्मक सान्द्र HCI तथा निर्जल ZnCl2 का 1 : 1 मिश्रण
ल्यूकास अभिकर्मक कहलाता है, यह प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक
ऐल्कोहॉलों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता है। इसके साथ अभिक्रिया
तृतीयक ऐल्कोहॉल, तुरन्त ही धुंधलापन उत्पन्न करते हैं। द्वितीयक
ऐल्कोहॉल पाँच मिनट में धुंधलापन उत्पन्न करते हैं तथा प्राथमिक
एल्कोहॉल गर्म करने पर ही धुंधलापन उत्पन्न करते हैं।
फोनॉल- फोनॉल बेंजीन के हाइड्रॉक्सी व्युत्पन्न हैं , इनमें एक या एक से
अधिक – OH समूह सीधे बेंजीन ring से जुड़ा होता है।
जब हाइड्रॉक्सी (-OH) समूह बेंजीन वलय के कार्बन से जुड़ा होता है तो
ऐसे यौगिकों को फीनॉल (Phenols) कहते हैं example C6H5-OH , लेकिन जब OH समूह
पार्श्व शृंखला के कार्बन से जुड़ा होता है तो ऐसे यौगिकों को ऐरीमैटिक
एल्कोहॉल कहते हैं example C6H5CH2CH2-OH।
फीनॉल में ध्रुवीय- OH समूह की उपस्थिति तथा फोनॉक्साइड आयन
के अनुनाद स्थायीकरण के कारण फीनॉल शीघ्रता से प्रोटॉन निर्गत करता है.
अर्थात् अम्लीय गुण प्रदर्शित करता है।
इलेक्ट्रॉन आकर्षो समूह (जैसे- – NO2 –X CHO, COOH
आदि) इसकी अम्लीय प्रकृति को बढ़ाते हैं जबकि इलेक्ट्रॉन दाता समूह
(जैसे- – R, – OR) इसकी अम्लीय प्रकृति को घटा देते हैं।
फीनॉल को निम्नलिखित विधियों द्वारा बनाया जा सकता है-
(1) –OH समूह से प्रतिस्थापन द्वारा.
(i) हैलोऐरीन में हैलोजन परमाणु का तथा,
(ii) ऐरिल सल्फोनिक अम्ल में सल्फोनिक अम्ल समूह का प्रतिस्थापन
(2) डाइऐजोनियन लवणों के जल-अपघटन द्वारा तथा
(3) क्यूमीन से औद्योगिक उत्पादन द्वारा।
फीनॉल का -OH समूह ortho तथा para निर्देशकारी होता है अत: यह
इलेक्ट्रॉनरागी प्रतिस्थापन अभिक्रियाएँ आर्थो तथा पैरा- स्थितियों पर
देता है।
राइमर-टीमैन अभिक्रिया- फीनॉल की अभिक्रिया कॉस्टिक क्षार के
विलयन में तथा क्लोरोफॉर्म या कार्बन टेट्राक्लोराइड के साथ कराते हैं।
इस अभिक्रिया में सैलिसैल्डिहाइड प्राप्त होता है।
कोल्वे अभिक्रिया– सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) की उपस्थिति में
फीनॉल , सोडियम फोनॉक्साइड C6H5-ONaबनाता है, फोनॉक्साइड आयन फोनॉल
से अधिक क्रियाशील होता है। अतः क्षारीय माध्यम में फोनॉल का
कार्बोक्सिलीकरण होता है जिससे सैलिसिलिक अम्ल प्राप्त होता है। इस
अभिक्रिया को कोल्चे अभिक्रिया कहते हैं।
गाटरमान ऐल्डिहाइड अभिक्रिया-फीनॉल की निर्जल ZnCl2 की
उपस्थिति में HCI वा HCN के साथ अभिक्रिया कराई जाती है तो
p-हाइड्रॉक्सीबेन्जेल्डिहाइड मुख्य उत्पाद के रूप में बनता है।
लीबरमान नाइट्रोसो परीक्षण इस परीक्षण में फीनॉल की अभिक्रिया
NaNO2 व सान्द्र H2SO4 से कराने पर लाल भूरा रंग आता है जो शीघ्र
नीला-हरा हो जाता है। वह जल मिलाने पर पुनः लाल तथा क्षार मिलाने
पर फिर से नीला-हरा हो जाता है।
ईथर ( R-O-R ) : ईथर कार्बनिक यौगिकों की उस श्रेणी के यौगिक हैं , जिनमें दो
ऐल्किल समूह एक द्विसंयोजक ऑक्सीजन परमाणु से जुड़े होते हैं।
ईथर का IUPAC नाम ऐल्कॉक्सी ऐल्केन है। छोटे ऐल्किल
समूह को ऐल्कॉक्सी तथा बड़े ऐल्किल समूह को ऐल्केन के रूप में
लिखा जाता है।
ईथर क्रियात्मक और मध्यावयवता प्रदर्शित करते हैं।
ईथर को (i) ऐल्कोहॉलों के निर्जलन से (ii) विलियमसन संश्लेषण से
बनाया जाता है।
विलियमसन संश्लेषण : इस विधि में ऐल्किल हैलाइड की सोडियम
ऐल्कॉक्साइड के साथ अभिक्रिया कराई जाती है। इस विधि से सममित
तथा असममित दोनों प्रकार के ईथर बनाये जा सकते हैं।
ईथर के क्वथनांक ऐल्केनों से मिलते-जुलते होते हैं जबकि इनकी
विलेयता समान आण्विक द्रव्यमान वाले ऐल्कोहॉलों के तुल्य होती है।
निम्न ईथर जल में विलेय होते हैं।
ईथरों के C-O आबंध को हाइड्रोजन हैलाइडों (R-X )द्वारा विदलित किया जा
सकता है। ऐरिल ऑक्सीजन आबंध के अधिक स्थाई होने से ऐल्किल
ऐरिल ईथर का ऐल्किल ऑक्सीजन आबंध विदलित होता है। इस
अभिक्रिया से फोनॉल एवं ऐल्किल हैलाइड प्राप्त होते हैं। ईथर में यदि
एक ऐल्किल समूह तृतीयक होता है तो तृतीयक हैलाइड प्राप्त होता है।
इलेक्ट्रॉन रागी प्रतिस्थापन में ऐल्कॉक्सी समूह ऐरोमैकि वलय को सक्रिय
बनाता है, तथा प्रवेश करने वाले समूह को आर्थों एवं पैरा-स्थितियों
की ओर निर्दिष्ट करता है।
ईथर वायु की ऑक्सीजन के साथ ऑक्सीकृत होकर विस्फोटक
परॉक्साइड बनाते हैं।
ईथर में ऐल्कॉक्सी समूह का आकलन जाइसेल विधि द्वारा करते हैं।
इकाई-8 ऐल्डिहाइड, कीटोन एवं कार्बोक्सिलिक अम्ल
कार्बोनिल यौगिक- ये वे यौगिक हैं जिनमें कार्बोनिल समूह (>C-O)उपस्थित
होता है। example CH3CHO, CH3COOH, CH3COBr
ऐल्डिाहाइड-ये क्रियात्मक समूह -CHO रखने वाले यौगिक हैं तथा
ये प्राथमिक ऐल्कोहॉलों के ऑक्सीकरण उत्पाद होते हैं।
कीटोन- इनमें >C-0 क्रियात्मक समूह उपस्थित होता है तथा वे
द्वितीयक ऐल्कोहॉलों के ऑक्सीकरण उत्पाद होते हैं।example CH3-CO-CH3
ऐल्डिहाइड एवं कीटोनों का विरचन-इनका विरचन ऐल्कोहॉलों के
ऑक्सीकरण या बिहाइड्रोजनीकरण द्वारा अथवा मोनोकार्बोक्सिलिक
अम्लों के कैल्सिमय लवणों के शुष्क आसवन द्वारा किया जाता है।
कोलिन अभिकर्मक– यह CrO3 तथा पिरिडीन का (1 : 2 अनुपात में )
डाइक्लोरो मेथेन (CH2Cl2) में बना मिश्रण है। यह ऐल्कोहॉल के
ऑक्सीकरण को ऐल्डिहाइड पर रोक देता है।
रोजेनमुण्ड अपचयन इस क्रिया में ( -CO-X ‘ओइल क्लोराइड’ समूह ) Pd/
BaSO4 (उबलती जाइलीन में) के द्वारा ऐल्डिहाइड (-CO-H ) में अपचयित हो जाता है।
नाभिकस्नेही अभिक्रियाओं के प्रति क्रियाशीलता- इन
अभिक्रियाओं के प्रति ऐल्डिहाइड, कोटोन से अधिक क्रियाशील होते
हैं। जैसे-जैसे ऐल्फिल समूहों की संख्या बढ़ती जाती है, नाभिकस्नेही,
योग अभिक्रियाओं के प्रति क्रियाशीलता कम होती जाती है। अतः इन
अभिक्रियायों के प्रति विभिन्न कार्बोनिल यौगिकों की क्रियाशीलता का
क्रम निम्नवत् है-
H-CHO > CH3CHO > CH3COCH3
फॉर्मेलिन– यह फार्मेल्डिहाइड ( H-CHO ) का 40% जलीय विलयन होता है।
हैलोफॉर्म अभिक्रिया ऐसे यौगिक जिनमें CH3CO- (मेथिल कीटोन) समूह उपस्थित होता है अथवा वे जो ऑक्सीकरण पर
CH3CO-समूह देते हैं, जैसे-CH3CH(OH)- की क्रिया हैलोजन
(Cl, Br या I2 ) से किसी क्षार (NaOH या KOH) की उपस्थिति में
कराने पर हैलोफॉर्म (CHX3) बनते हैं तथा यह अभिक्रिया हैलोफॉर्म
अभिक्रिया कहलाती है।
ऐल्डोल संघनन- α-हाइड्रोजन युक्त ऐल्डिहाइड या कीटोन की
क्रिया तनु क्षार ( eg. NaOH )से कराने पर β- हाइड्रॉक्सी ऐल्डिहाइड (ऐल्डोल)
या β-हाइड्रॉक्सी कीटोन बनते हैं। यह अभिक्रिया ऐल्डोल
संघनन कहलाती है। इस अभिक्रिया में समान ऐल्डिहाइड या कीटोन
का एक अणु इलेक्ट्रॉनरागी की भाँति तथा दूसरा अणु नाभिकरागी की
भाति व्यवहार दर्शाता है।
क्रॉस-ऐल्डोल संघनन-जब ऐल्डोल अभिक्रिया दो भिन्न कार्बोनिल
यौगिकों के मध्य होती है तब इसे क्रॉस मिश्रित ऐल्डोल संघनन
कहते हैं। यदि अभिक्रिया में भाग लेने वाले दोनों कार्बोनिल यौगिकों
α H परमाणु उपस्थित हों तब इस अभिक्रिया के पश्चात् चार ऐल्डोलों
का मिश्रण प्राप्त होता है। इस अभिक्रिया को विषम ऐल्डोल संघनन के
नाम से भी जाना जाता है।
क्लेजन-श्मिट या क्लेजन संघनन अभिक्रिया जब α- हाइड्रोजन
युक्त ऐल्डिहाइड या कीटोन की क्रिया, α H न रखने वाले ऐरोमैटिक
ऐल्डिहाइड (बेन्जेल्डिहाइड) से तनु क्षार (dil NaOH) की उपस्थिति में निम्न ताप पर
करायो जाती है तो ऐल्डोल बनता है जो निर्जलीकरण पर असंतृप्त
यौगिक बनाता है। यह अभिक्रिया क्लेजन-श्मिट या क्लेजन संघनन
अभिक्रिया कहलाती है।
टॉलेन अभिकर्मक–अमोनीकृत सिल्वर नाइट्रेट (AgNO3 +
NH4OH) को टॉलेन अभिकर्मक कहा जाता है। जब किसी ऐल्डिहाइड
को ताजा निर्मित अमोनीकृत AgNO3 (टॉलेन अभिकर्मक) के साथ
गर्म किया जाता है तो सिल्वर धातु बनने के कारण चमकदार रजत दर्पण (silver mirror)
बन जाता है तथा ऐल्डिहाइड संगत कार्बोक्सिलेट आयन में ऑक्सीकृत
हो जाता है। यह अभिक्रिया क्षारीय माध्यम में करायी जाती है।
फेहलिंग अभिकर्मक–फेहलिंग अभिकर्मक, दो विलयनों फेहलिंग
विलयन ‘A’ तथा फेहलिंग विलयन ‘B’ का मिश्रण होता है। फेहलिंग
विलयन ‘A’ कॉपर सल्फेट का जलीय विलयन होता है जबकि फेहलिंग
विलयन ‘B’ सोडियम पोटैशियम टार्टरेट (रोशेल लवण, Rochelle
salt) का क्षारीय (NaOH या Na2CO3 में) विलयन होता है। फेहलिंग
विलयन ‘A’ नीले रंग का जबकि फेहलिंग विलयन ‘B’ रंगहीन होता है।
शिफ अभिकर्मक : गुलाबी रंग के रोजऐनिलीन हाइड्रोक्लोराइड के
जलीय विलयन में SO2 गैस प्रवाहित करने पर इसका गुलाबी रंग आ
जाता है। यह रंगीन विलयन शिफ अभिकर्मक कहलाता है।
बेनेडिक्ट विलयन : यह नीले रंग का विलयन है तथा इसका संघटन
फेहलिंग विलयन के समान होता है। यद्यपि इसमें टार्टरेट के स्थान पर
सिट्रेट आयन होता है। अतः यह क्यूप्रिक सिट्रेट का क्षारीय विलयन
है , जिसे CuSO4 के क्षारीय विलयन में पोटैशियम सिट्रेट मिलाकर प्राप्त
किया जाता है।
कैनिजारो अभिक्रिया ऐसे ऐल्डिहाइड जिनमें अल्फा(α) हाइड्रोजन
परमाणु अनुपस्थित होते हैं, सान्द्र क्षार (NaOH or KOH ) के साथ गर्म करने पर असमानुपातित
होकर संगत ऐल्कोहॉल तथा संगत कार्बोक्सिलेट आयन बनाते हैं। यह
अभिक्रिया कैनिजारो अभिक्रिया कहलाती है।
कार्बोक्सिलिक अम्ल-ऐसे कार्बनिक यौगिक जिनमें
-COOH समूह उपस्थित होता है, कार्बोक्सिलिक अम्ल कहलाते हैं।
कार्बोक्सिलक समूह में एक हाइड्रॉक्सिल (-OH) समूह कार्बोनिल
समूह से (>C-O) से जुड़ा होता है। अत: इसका नाम कार्बोक्सिल
दिया गया।
कार्बोक्सिलिक अम्लों का विरचन– इन्हें ऐल्कोहॉल, ऐल्डिहाइड
या कीटोन, या हाइड्रोकार्बन के ऑक्सीकरण द्वारा; या अम्ल व्युत्पन्नों
अथवा सायनाइड के जल अपघटन द्वारा प्राप्त किया जाता है।
कार्बोक्सिलिक अम्लों की अम्ल प्रबलता–
(i) ऐलिफैटिक मोनोकार्बोक्सिलिक अम्लों में -I प्रभाव दशनि वाले
समूह (जैसे NO, F, CI आदि) की उपस्थिति इनकी अम्ल
प्रबलता को बढ़ा देती है जबकि +I प्रभाव दर्शाने वाले समूह (जैसे
-CH2CH3 आदि) की उपस्थिति इनकी अम्ल प्रबलता को कम
कर देती है।
H-COOH > CH3-COOH > CH3CH2-COOH >
CH3CH2CH2-COOH
(ii) ऐरोमैटिक कार्बोक्सिलिक अम्लों में इलेक्ट्रॉन दानी समूह की
उपस्थिति अम्ल प्रबलता को कम करती है जबकि इलेक्ट्रॉन ग्राही
समूह की उपस्थिति अम्ल प्रबलता को बढ़ा देती है।
कोल्बे वैद्युत अपघटन कार्बोक्सिलिक अम्लों के सोडियम या
पोटैशियम लवणों के जलीय विलयन का वैद्युत अपघटन द्वारा
विकार्बोक्सिलन हो जाता है तथा इस अभिक्रिया में ऐसे हाइड्रोकार्बन
निर्मित होते हैं जिसमें कार्बन परमाणुओं की संख्या, अम्ल के ऐल्किल
समूह में उपस्थित कार्बन परमाणुओं की संख्या से दुगुनी होती है। इस
अभिक्रिया को कोल्बे वैद्युत अपघटन कहते हैं।
इकाई-9 ऐमीन
ऐमीन-अमोनिया के ऐल्किल या ऐरिल व्युत्पन्न , ऐलिफैटिक या
ऐरोमैटिक ऐमीन कहलाते हैं। अमोनिया (NH3)अणु के एक दो या तीन H-परमाणु
ऐल्किल या ऐरिल समूहों द्वारा विस्थापित होने के अनुसार, ऐमीन
क्रमश: प्राथमिक (-NH2) द्वितीयक (> NH) या तृतीयक (-N<)
ऐमीन में वर्गीकृत किये जाते हैं। द्वितीयक और तृतीयक ऐमीनों के सभी
ऐल्किल या ऐरिल समूह समान होने पर सरल ऐमीन तथा भिन्न होने
पर मिश्रित ऐमीन कहते हैं। अमोनिया के समान तीनों प्रकार (1°, 2°
और 3°) के ऐमीनों के पास एक एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म होता है जिसके
कारण ये लुईस क्षारक (lewis base)के समान व्यवहार करते हैं।
हॉफमान अमोनी-अपघटन इस अपघयटन में ऐल्किल हैलाइड (R-X) के
C-X बंध का विदलन अमोनियम अणु द्वारा होता है जिसके
फलस्वरूप 1° , 2° , 3° ऐमीन और चतुष्क (4°)अमोनिया लवण प्राप्त होते.
है। ऐरिल एमीन इस विधि से नहीं बनाये जा सकते क्योंकि ऐरिल हैलाइड
सामान्य परिस्थितियों में नाभिकस्नेही प्रतिस्थापन अभिक्रियाएँ नहीं देते
हैं।
• गैब्रिएल थैलिमाइड संश्लेषण-पोटैशियम थैलिमाइड, ऐल्किल
हैलाइड के साथ गर्म करने के पश्चात् क्षारीय जल अपघटन द्वारा संगत
प्राथमिक ऐमीन बनाते हैं। इस विधि से प्राथमिक ऐमीनों का विरचन
किया जाता है। ऐरोमैटिक ऐमीन इस विधि से नहीं बनाये जा सकते हैं।
● हॉफमान ब्रोमाइड निम्नीकरण अभिक्रिया- इस विधि में किसी
ऐमाइड को NaOH के जलीय अथवा एथेनॉलिक विलयन में ब्रोमीन से
अभिक्रिया करते हैं। इस विधि में ऐल्किल (-R) या ऐरिल ( -C6H5) समूह का
स्थानान्तरण ऐमाइड के कार्बोनिल कार्बन से ऐमीन के नाइट्रोजन
परमाणु पर होता है अतः प्राप्त ऐमीन में ऐमाइड से एक कार्बन कम
होता है।
● श्मिट अभिक्रिया-सान्द्र H2SO4 की उपस्थिति में कार्बोक्सिलिक
अम्ल हाइड्रेजोइक अम्ल (N3H) से अभिक्रिया द्वारा प्राथमिक ऐमीन देते
है। इस अभिक्रिया में CO2 और N2 गैसें मुक्त होती हैं।
● ऐमीन का क्षारीय प्रकृति का क्रम-सभी ऐलिफैटिक ऐमीन अमोनिया
से अधिक क्षारीय होते हैं।
(i) जलीय विलयन में मैथिल ऐमीनों की क्षारीयता का क्रम-
(CH3)2N > CH3NH2 > (CH3)3N >
(ii) ऐथिल और शेष उच्च ऐमीनों की क्षारीयता का क्रम-
(C2H5)2N > (C2H5)3N >C2H5NH2
Kb का मान जितना उच्च होगा या pKb का मान जितना कम होगा, क्षार
उतना हो प्रबल होगा।
● सभी ऐरोमैटिक ऐमीन अमोनिया से दुर्बल क्षार हैं।
•
इलेक्ट्रॉन दाता समूह (—CH3, – OCH3, – NH2 आदि) की उपस्थिति
से ऐमीनों की क्षारीयता में वृद्धि होती है जबकि इलेक्ट्रॉन ग्राही समूह
(-NO2, -CN, -COOH) की उपस्थिति से ऐमोनो की क्षारीयता
में कमी आती है।
● ऑर्थोप्रतिस्थापित ऐनिलीन अपेक्षाकृत दुर्बल क्षार होते हैं (ऑर्थो प्रभाव)।
• कार्बिलऐमीन अभिक्रिया- ऐलिफैटिक तथा ऐरोमैटिक प्राथमिक
ऐमीन क्लोरोफॉर्म ( CHCl3 )और एथेनॉलिक पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड (KOH)के साथ
गर्म करने पर दुर्गन्ध युक्त पदार्थ आइसोसायनाइड अथवा कार्बिल ऐमीन
का विरचन करते हैं। यह अभिक्रिया प्राथमिक ऐमीनों के परीक्षण में
प्रयुक्त होती है।
● हॉफमान मस्टर्ड ऑयल अभिक्रिया ऐलिफैटिक प्राथमिक
ऐमीन HgCl2 की उपस्थिति में CS2 के साथ गर्म करने पर ऐल्किल
आइसोथायोसायनेट बनाते हैं जिनकी गंध सरसों के तेल जैसी होती है।
यह अभिक्रिया प्राथमिक ऐमीनों के परीक्षण में प्रयुक्त होती है।
ऐरोमैटिक प्राथमिक ऐमीन जैसे ऐनिलीन, एथेनॉलिक CS2 विलयन के
साथ ठोस KOH विलयन के साथ में गर्म करने पर N,N-डाइफेनिल
थायोयूरिया बनाती है जो मस्टर्ड ऑयल जैसी गंध वाला नहीं होता है।
● ऐल्किलन– किसी भी अणु में ऐल्किल समूह का जुड़ना ऐल्किलन
कहलाता है।
● ऐसिलन-बैंजीन ring में ऐमीनो समूह की उपस्थिति ऐरोमैटिक ऐमीन
की अभिक्रियाशीलता को बढ़ा देती है जिसे ऐसिलन द्वारा नियंत्रित
किया जा सकता। ऐसिलन में ऐमीन की ऐसिल क्लोराइड अथवा
ऐसीटिक ऐनहाइड्राइड से अभिक्रिया कराते हैं। यदि ऐनिलीन का एकल
प्रतिस्थापी व्युत्पन्न जैसे 4 ब्रोमोऐनिलीन बनाना हो तो – NH2 समूह के
सक्रियण प्रभाव को पहले एसिलन द्वारा नियंत्रित करते हैं।
• डाइऐजोटीकरण- प्राथमिक ऐरोमैटिक ऐमीन की अभिक्रिया 273-
278 K पर NaNO2 + HCI से कराने पर डाइएजोनियम लवण प्राप्त
होता है। इस प्रकार प्राथमिक ऐमीन के डाइऐजोनियम में परिवर्तन को
डाइऐजोटीकरण कहते हैं। अस्थाई प्रकृति के होने के कारण इनका
भंडारण नहीं करते हैं।
• सैण्डमायर अभिक्रिया- बेंजीन ring में CI, Br, CN नाभिकरागियों
को CuCN की उपस्थिति में प्रवेश कराने की अभिक्रिया सैण्डमायर अभिक्रिया कहलाती है।
• यदि सैण्डमायर अभिक्रिया में प्रयुक्त Cu(I) [जैसे CuCl, CuI, CuBr
CuCN के स्थान पर Cu प्रयुक्त होती है तो अभिक्रिया गाटरमान अभिक्रिया कहलाती है।
इकाई 10 जैव-अणु
जैव अणु-वे जटिल कार्बनिक यौगिक हैं जो जैवद्रव्य का निर्माण करते
हैं तथा जीवधारियों की वृद्धि, अनुरक्षण तथा उनके सामर्थ्य के लिए
उत्तरदायी होते हैं, जैव अणु कहलाते हैं।
कार्बोहाइड्रेट-ध्रुवण घूर्णक पॉलिहाइड्रॉक्सो ऐल्डिहाइड अथवा
कीटोन, अथवा वे कार्बनिक यौगिक जो जल अपघटन पर पॉलिहाइड्रॉक्सी
ऐल्डिहाइड या पॉलिहाइड्रॉक्सी कीटोन देते कार्बोहाइड्रेट कहलाते हैं। eg ग्लूकोस, स्टार्च etc
मोनोसैकेराइड-वे कार्बोहाइड्रेट जिनको पॉलिहाइड्रॉक्सी ऐल्डिहाइड
के और अधिक सरल यौगिकों में जल अपघटित नहीं किया
जा सकता है, जैसे-ग्लूकोस, फ्रक्टोस आदि।
अपचायी शर्करा– वे सभी कार्बोहाइड्रेट जो फेहलिंग विलयन और
टॉलेन अभिकर्मक को अपचयित कर देते हैं, अपचायी शर्करा है। सभी
मोनोसैकेराइड चाहे वे ऐल्डोस हो या कीटोस, अपचायी शर्करा है।
अनअपचायी शर्करा-वे डाइसैकेराइड जिनके मोनोसैकंराइडो के
अपचायी समूह जैसे ऐल्डिहाइड या कीटोन आबंधित होते हैं तो वह
अनअपचायी शर्करा है। जैसे-सुक्रोस । यदि शर्करा में ये प्रकार्यात्मक
समूह मुक्त होते हैं तो वह अपचायी शर्करा है। जैसे- माल्टोस, लैक्टोस
ग्लूकोस-जो कि स्तनधारियों के लिए ऊर्जा का मुख्य स्रोत हैं, स्टार्च
के पाचन से प्राप्त होता है।
ग्लाइकोसिडिक आबंध– मोनोसैकेराइड, ग्लाइकोसिडिक आबंध द्वारा
जुड़कर डाइसैकेराइड और पॉलिसैकेराइड बनाते हैं।
ऐमीनो अम्ल-वे कार्बनिक यौगिक जिनके एक अणु में एक या अधिक
ऐमीनो समूह तथा एक या अधिक कार्बोक्सिलिक समूह होते हैं, ऐमीनो
अम्ल कहलाते हैं। प्रोटीन के जल-अपघटन से केवल alpha ऐमीनो अम्ल
ही प्राप्त होते हैं।
आवश्यक ऐमीनो अम्ल-दस ऐमीनो अम्लों को आवश्यक ऐमीनो
अम्ल कहते हैं क्योंकि ये हमारे शरीर में निर्मित नहीं होते हैं। ये आहार
द्वारा हमारे शरीर को उपलब्ध होते हैं।
प्रोटीन- ये लगभग बीस विभिन्न – ऐमीनो अम्लों के बहुलक हैं जो
पेप्टाइड आबंधों द्वारा जुड़े रहते हैं। साधारण प्रोटीन केबल a ऐमीनो
अम्लों से बने होते हैं। जैसे-ऐल्बुमिन, ग्लोबुलिन आदि।
प्रोटीन का विकृतीकरण-pH अथवा ताप में परिवर्तन करने पर
प्रोटीनों की द्वितीयक और तृतीयक संरचनाएँ विकृत हो जाती है तथा वे
अपना कार्य संपादित नहीं कर पाती हैं। इसे प्रोटीन का विकृतीकरण
कहते हैं। सामान्यतया प्रोटीनों का विकृतीकरण अनुत्क्रमणीय अभिक्रिया
है।
न्यूक्लीक अम्ल– न्यूक्लिओटाइडों के बहुलक हैं जो
एक क्षारक, एक पेन्टोस शर्करा तथा एक फॉस्फेट अर्धाश से मिलकर
बनता है। न्यूक्लीक अम्ल जनक से संतति में गुणों को स्थानान्तरित
करते हैं।
DNA – डिऑक्सीराइबोस न्यूक्लीक अम्ल में डिऑक्सीराइबोस शर्करा
होती है। इसमें चार प्रकार के क्षारक ऐडेनीन, ग्वानीन, साइटोसीन तथा
थायमीन होते हैं। इसकी रचना द्विरज्जुक (double stranded) द्विकुण्डलिनी है। DNA
अनुवांशिकी के वाहक का कार्य करते हैं। यह जीवों को पीढ़ी दर पीढ़ी
नियन्त्रित करता है।
RNA – राइबोस न्यूक्लीक अम्ल में राइबोस शर्करा होती है RNA.
में तीन क्षारक तो DNA के समान होते हैं। चौथा क्षारक थायमीन के
स्थान पर यूरेसिल होता है। इसकी संरचना एक रज्जुक (single stranded) कुण्डलिनी होती
है । RNA तीन प्रकार के होते हैं-mRNA, r-RNA और RNA ये
सभी कोशिका में प्रोटीन के संश्लेषण में भाग लेते हैं। प्रोटीन संश्लेषण
की पूरी प्रक्रिया को DNA नियन्त्रित करता है।
● DNA Fingerprinting अंगुली छापन- प्रत्येक व्यक्ति में DNA के क्षारकों का
अनुक्रम विशिष्ट और अद्वितीय होता है। इसको ज्ञात करना DNA
अंगुली छापन कहलाता है।